ज़िन्दगी की दौड़ भाग में कब वक्त मिला / कुछ देर कहीं पर बैठ / कभी ये सोच सकूँ / जो किया, कहा, माना, उसमे क्या बुरा भला
सचमुच ज़िन्दगी इतनी बीजी हो गई इन दिनों की आपसे मुखातिब होने का वक्त भी नहीं मिला. और काहिली इतनी बढ़ी की आप सबको आज दस दिन के बाद 'नया साल मुबारक' बोल रहा हूँ. खैर इसके लिए सचमुच मैं बहुत शर्मिंदा हूँ. और इसी शर्मिंदगी को महसूस करते हुए आज नए साल में आपको मैं उन कुछ लोगो के बारे में बताना चाहता हूँ जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी में काफी समय मेरे साथ बिताया वो अनुभव चाहे खट्टे हों या मीठे मगर यादगार ज़रूर रहेंगे. ये सब वो हैं जो किसी भी तरह से मेरे रिश्तेदार नहीं हैं. कुछ तो बचपन के दोस्त हैं और कुछ ऑफिस के साथी.अपने बचपन के दोस्तों को मैं उनके उसी नाम से लिख रहा हूँ जो हम कहते थे. यादें बहुत हैं और लिखना बहुत मुश्किल है मगर मंजिल तो तभी मिलती है जब हम चलने का फ़ैसला कर लेते हैं इसलिए ज़्यादा भूमिका ना बनाते हुए मैं लिखना शुरू करता हूँ।
चुन्नू: मेरे बचपन के दोस्तों में बहुत सारे नाम हैं मगर किसी एक से शुरू सचमुच जोखिम भरा हो सकता है. चुन्नू मेरे साथ बचपन से ही गाने-बजाने और तमाम भांडगिरी की बचकानी हरक़तो में शामिल रहा है. हम पढने के बहाने उसके घर में खूब गाना-बजाना करते थे. यहाँ तक की पडोसियो को कहना पड़ता था की रात हो रही है शोर मत करो. चुन्नू के किए से ही मैंने वीडियो किराये पर लेकर 'बकरा किश्तों पे' देखा था. इसके अलावा बचपन के लगभग सभी खेलो में चुन्नू, कालू, मनीष, दीपू, राजू, निट्टा हम सब शामिल थे. चुन्नू के बारे में सबसे अच्छी बात ये है की वो कभी भी अंहकार या घमंड नहीं करता, ये अलग बात है की हम में से किसी में भी घमंड करने वाली कोई बात है ही नहीं. चुन्नू के साथ मैं बहुत शाम डबल स्टोरी के सामने वाले बस स्टाप पर बैठ कर बिताई हैं. रात को खाना खाकर हम वहां चले जाते और भी मैं अपनी बोलने की आदत के चलते सारे दिन की घटनाओ पर उस से चर्चा करता, कभी नहीं लगा की वो मेरी बकवास से बोर हुआ हो. आज वो नई दिल्ली नगर परिषद् में नौकरी कर रहा है और खुशकिस्मती से अभी भी उसी घर में रह रहा है जिसमे वो पैदा हुआ था. यहाँ अगर में अंकलजी यानि चुन्नू के पापा और उसके भाई कालू (वैसे उसका नाम संदीप था, और 'था' इसलिए क्यूंकि हम सब दोस्तों में सबसे पहले वही भगवान् के पास गया है) का ज़िक्र ना करूँ तो पढने वाले ब्लोगेर्स के साथ ज्यादती होगी. अंकलजी ने कभी भी सीरियस होकर हमसे कोई बात नहीं की शायद यही एक बहुत बड़ी बात है उनके बात करने का ढंग और मिलनसारी ने उन्हें हम सबका दोस्त बना दिया था. कालू, बहुत तेज़ दिमाग और चतुर था. स्वीमिंग सीखने के दूसरे दिन ही उसने १२ फीट पानी में छलांग लगा दी थी और जब वो मरीन नेवी का कोर्स करने गया तो काल के गाल में समां गया।
मनीष: मनीष और मेरी पैदाइश में सिर्फ़ २६ दिनों का फर्क है, मैं उस से सिर्फ़ २६ दिन बड़ा हूँ और मेरी मम्मी बताती हैं की मनीष की दादी तब कहती थीं "दोनु लड़का संग-संग पढेंगे, खेलेंगे और फिर संग-संग इनके शादी ब्याह होंगे" मगर मज़े की बात ये है हमने पढ़ाई साथ-साथ नहीं की मतलब हमारे स्कूल अलग-अलग थे. मनीष हमेशा से ख़ुद को श्रेष्ठ समझता था और बच्चो में ये भावना आम तौर पर आ ही जाती है. सच कहें तो हमारी टोली में किसी ने इसका विरोध भी नहीं किया. मनीष को 'व्यापार' नाम का खेल बहुत पसंद था और गर्मियो की छुट्टियो में उनके घर की छत पर बैठ कर हम 'व्यापार' खेलते थे. मनीष और चुन्नू का रिश्ता बहुत मजेदार था एक कहता था और एक करता था, अब आप समझदार हैं और किस अवस्था में था ये बात आप सिर्फ़ समझ लीजिये, कहलवाइए मत. मनीष और मैं हमेशा से दोस्त रहे मगर जितना नजदीकी रिश्ता मेरा और चुन्नू का था उतना शायद मनीष से नहीं बन पाया. पता नहीं क्यूँ मुझे मनीष आज भी समझने में बहुत मुश्किल लगता है. आज वो एक बड़े सिनेमा हाल ग्रुप में बहुत अच्छी पोसिशन में है और हम कभी-कभी फ़ोन पर बात कर लेते हैं. अब ये मत पूछिए की मिलते क्यूँ नहीं?बस यार अब तो में लिखते-लिखते थक गया हूँ. इसके बाद मैं आपको नीटे, दीपू, राजू, और सबसे बढ़कर अपने स्कूल के दोस्तों संजय और मोहित के बारे में बताऊंगा. पर अभी बस ...
1 comment:
Very well written ..achchcha lagta hai jab hum apne bachpan ke dosto ko yaad kartein hai :)
aapke blog par Shri Chakradhar ji ke blog ke madhyam se aaya .....aasha karta hu aapka blog mujhe bar bar aane ke liye aakarshit karta rahega
aapke ashirwad ka prarthi
Sandesh Dixit
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