पुराने ज़माने में, शायद अभी दस साल पहले की ही बात कर रहा हूँ, बल्लीमारन और पुरानी दिल्ली के पुराने इलाकों में हिंदुस्तान की आजादी की सालगिरह आसमान में पतंगों को परवाज़ देकर माने जाती थी. 15 अगस्त से लेकर रक्षाबंधन तक यही दौर दौरा रहा करता था. सुबह हुयी नहीं की आसमान को पतंगों ने अपने पंखो से ढका नहीं. क्या बच्चे क्या बुजुर्ग सभी के लिए पतंग के मांझे और आसमान में धधकता सूरज यही ज़िन्दगी के मायने हो जाते थे. बच्चे अपनी माँ से डांट खा रहे होते थे तो बीविया अपने शोहारो को कोस रही होती थी. हर घर की कहानी का ये हिस्सा कमोबेश एक जैसा ही होता था. पतंग और मांझे की चरखी उठाकर सूरज के रोशन होते ही सब छत पर होते थे और सूरज के बुझने तलक वहीं पर नाश्ता, खाना, चाए, और कभी कभी तो छोटी शंका का समाधान भी छत ही पर होता था.
दिल्लीवालों को पतंगबाजी का शौक है, इसे हमने कभी खेल या टाइम पास की तरह नहीं लिया. हैं कुछ शहर जहाँ के लोग पतंगों को खेल की तरह या फिर टाइम पास की तरह इस्तेमाल करते हैं. दिल्लीवालो के लिए पतंगबाजी एक शौक है. वैसे भी दिल्लीवाले अपनी शौकीन तबियत के लिए दुनिया में मशहूर हैं. पतंगबाजी का सबसे मुश्किल हिस्सा घर की औरतो को समझाने का होता है. वैसे 15 अगस्त या रक्षाबंधन के दिन तो पतंगबाजी की छूट मिल जाती है मगर और दिनों में पतंग का शौक पूरा करना काफ़ी मशक्क़त भरा होता है.
इस बार 15 अगस्त वाले दिन मुझे तो ऑफिस आना था इसलिए मैं तो आ गया था पीछे मेरी भुआजी के बेटे का फ़ोन आया की "आपके इलाके में पतंगे उड़ रही है क्या?" मैं गाजियाबाद के शालीमार गार्डन में रहता हूँ. मैंने कहा "हाँ, अभी सुबह से ही काफ़ी पतंगे उड़ने लगी थी." मेरे भाई गाजियाबाद के ही इंदिरापुरम में एक 17 मंजिल की बिल्डिंग में रहते हैं. वहां उनकी परेशानी ये थी की सत्रहवी मंजिल से अगर पतंग उडाये तो उसकी ऊँचाई तक कोई भी पतंग निचले इलाकों से नहीं पहुँच सकती और इन सत्रह मंजिली अपार्टमेंट्स में पतंगबाजी जैसे वाहियात काम कोई ज़्यादा लोग नहीं करते. कुल मिलाकर पतंगबाजी का मज़ा तो पुरानी दिल्ली की शोर भरी गलियों में बने मकानों की छतो से ही लिया जा सकता है.
मेरे ख्याल में पतंगबाजी एक ऐसा शौक है जिससे आत्मा को सुकून मिलता है और ये शौक हिंदुस्तान और पाकिस्तान के अलावा दुनिया के किसी भी देश में नहीं पाला जाता. पतंग की उचाई बढ़ने के साथ साथ उडाने वाले की परवाज़ की कामना पूरी होती है. इतनी देर तक आसमान की तरफ़ देखने से शारीरिक परेशानी भले ही बढे मगर लगता है शायद अब तो ऊपर वाला हमारी शक्ल पहचान ही लेगा. पतंग कटे तो दुःख और अगर कोई पतंग कट कर आँगन में आ गिरे या उसे लूट लिया जाए तो सुख हासिल हो जाता है. कितनी छोटी छोटी चीजों में सुख और दुःख देख लेते हैं हम दिल्लीवाले. चलिए फिर मिलेंगे और विचार को बांटने के लिए. जय हिंद.
Thursday, August 21, 2008
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जितने चाहे धरम बदल लें, भगवान नहीं बदलेगा / मौसम के तेवर बदलेंगे, दिनमान नहीं बदलेगा / बदलेगा कफन हर लाश का, शमशान नहीं बदलेगा / तुम बदले या हम बदले, हिंदुस्तान नहीं बदलेगा -अहसान कुरैशी
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