Monday, October 20, 2008

क्या ये मॉल इतने बुरे हैं?

जी, सवाल मेरे मन में तब आया जब इनके ख़िलाफ़ एक हवा बननी शुरू हुयी। मॉल्स की पहचान ठेठ भारतीय अंदाज़ में दी जाती है 'मॉल संस्कृति' कह कर. वैसे में यहाँ याद करता हूँ जब मैं उर्दू पढ़ रहा था (आप ये सोचने के लिए स्वतंत्र हैं की एक हिंदू उर्दू क्यूँ पढ़ रहा था), तब हमारे उस्ताद ने बताया था की अगर आप किसी नाकाबिल को किसी बड़ी काबलियत वाले नाम से मुखातिब करते हैं तो वो उसका मज़ाक बनाना होता है जैसे अगर आप किसी को कहें 'हजरत' तो ये बहुत मुनासिब है की आप उसका मज़ाक उडा रहे हों. मगर एक तरफ़ आप ख़ुद हजरत मुहम्मद साहब का ज़िक्र करते हैं.

ये बात मुझे इसलिए याद आई क्यूंकि 'मॉल संस्कृति' से भी किसी का मतलब उसे 'हिंदू संस्कृति' या 'हड़प्पा-मोहनजोदाडो संस्कृति' की तरह सम्मान देने का नहीं है। मॉल के बढ़ते प्रभाव और उसके नई नस्ल की ज़रूरत बनने को लेकर उसका मज़ाक उडाने के विचार से ये कहा गया है 'मॉल संस्कृति' ये बिल्कुल वैसे ही है जैसे किसी ज़माने में हमारे बुजुर्ग 'होटलबाजी' शब्द का इस्तेमाल करते थे. ये अलग बात है की हमें होटलों के प्रकोप से बचाने के लिए उन्होंने हमें होटलों में जाने से रोका और आज आलम ये है हम में से करीब-करीब सारे लोग होटल में हाथ धोने के लिए दिए जाने वाले 'लेमन वाटर' को पीने की चीज़ समझकर मज़ाक की वजह बन चुके हैं.

आज अपनी आने वाली नस्ल को यानि अपने बच्चो को भी हम इस मॉल संस्कृति से बचाना चाहते हैं। हमे लगता है की मॉल जाना और वहां से चीजे खरीदना एक दम वाहियात और बेवजह खर्चा करने वाली बात है. इसकी एक वजह तो शायद ये है की अपनी पुरानी पीढी के दिखाए मार्ग पर चलते हुए सबसे पहले तो हम ख़ुद कभी मॉल नहीं जाते. अगर आप मॉल जाएँ और वहां देखें की भले ही चीजे दो रुपए महंगाई हैं मगर उसकी क्वालिटी अच्छी है तो आप कहेंगे 'कोई नहीं यार ये सब एक जैसी क्वालिटी होती है बस बेवकूफ बनाने वाली बात है' मगर सचमुच ऐसा नहीं है.

मॉल का सबसे ज़्यादा फायेदा उन परिवारों को है जहाँ सिर्फ़ मिया-बीवी और बच्चे हैं। उस पर भी मिया-बीवी दोनों नौकरी करते हैं. हफ्ते में एक छुट्टी के दिन वो लोग मॉल से पूरे हफ्ते का सामान भी ले आते हैं और बच्चो को घुमाना-फिराना भी हो जाता है. जहाँ तक दाम का सवाल है तो क्वालिटी अच्छी होने की वजह से मॉल में मिलने वाला समान दो पैसे महंगा ज़रूर है मगर उस सामान की पूरी जिम्मेवारी मॉल वालो की होती है. वरना घर के पास की दुकान वाला तो ख़राब डबलरोटी भी बदलने को राज़ी नहीं होता.

मैं तो आपसे यहीं गुजारिश करूँगा की मॉल की खरीदारी को 'होटलबाजी' या 'बेवजह का खर्चा' ना समझे. कम से कम कोई भी धारणा बनाने से पहले एक बार अपने घर के नज़दीक के मॉल तक हो आयें और हाँ बच्चो को साथ लेकर जायेंगे तो वो भी मुझे दुआ देंगे की अंकल ने कितनी अच्छी पट्टी पढ़ाई.

3 comments:

अभिषेक मिश्र said...

Sahi kaha hai aapne. Kisi chij ka andhvirodh karne se pahle use aajma kar jaroor dekh lena chahiye. Paschim se aai har chiz buri hai aisi jidd se bachna hi uchit hoga.

BrijmohanShrivastava said...

प्रिय माथुर जी /एक अच्छी जानकारी दी /सवाल पीढी को बचाने से नहीं सवाल है आधुनिकता का विरोध /मुझे याद है जब पहले पहल गैस का चूल्हा आया था तो दादी जी कहती थी इसके खाने से मेरे पेट में गैस बनती है /इस खाने में स्वाद ही नहीं है =तीन साल बाद दादीजी ""क्यों भैया गैस को नम्बर लगा दओ का?

prakharhindutva said...

kya hua mitra hamare blog par aana band kar diya....

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