मानता हूँ की आप मेरी बात से कतई सहमत नहीं हैं और मेरे इस ब्लॉग को देश विरोधी भी मान सकते हैं. पिछले सालो में सिर्फ एक बार भारत की जनसंख्या कम हुयी है वरना तो सुरसा के मूंह की तरह बढती ही जा रही है. बचाने की कवायद और तरीके बढ़ रहे हैं मगर पैदा करने से रोकने का कोई ख़याल ही नहीं है. लोग दिन-ब-दिन, साल-दर-साल बढ़ते जा रहे हैं. आबादी लगभग सवा दो करोड़ सालाना की दर से बढ़ रही है और मोजूदा संसाधनों में काम चलाना अभी-भी मुश्किल है. हमारे कुछ समुदायों में मानना है की जब ऊपरवाला पेट देता है तो खाना भी वही देगा. भारत चंद्रयान की तमाम ऊँचायियो के बावजूद भूख और बेकारी का तांडव एक अटूट गुरुत्वाकर्षण शक्ति बनकर तमाम योजनाओं और तरक्की पसंद खयालो को ज़मींदोज़ कर रहा है. जो काम पिछले एकसौबीस सालो में नहीं हो सका क्या उस भूख और लाचारी को ख़त्म करने का काम आने वाले किसी भी वक़्त में हो सकता है ? अगर इतने सालो में भारत से भूख और अशिक्षा को ख़त्म नहीं किया जा सका तो मेरे विचार से जनगणना की कवायद भेड़ो की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं है.
कहा तो ये जाता है की पच्चीस लाख जनगणनाकर्मियो की मदद से पूरे भारत की आबादी और मकानों की गणना की जायेगी और इसके बूते सरकार अपनी योजनायें बनाएगी. गिनवाने को तो ये काम बहुत ज़रूरी है मगर इसके बिना तरक्की अधूरी है. आखिर भारत के हुक्मरानों को पता होना चाहिए की उनके राज में आखिर कितने और किस तरह के लोग हैं. इस बार जनगणना में ईमेल और मोबाइल जैसे मानक भी तैयार किये गए हैं. पश्चिम बंगाल सरकार के आधिकारिक निवेदन के बावजूद जाति की गणना को शामिल नहीं किया गया है जिसे साल 1931 में बंद कर दिया गया था. ये अलग बात है भारत में जाति आधारित आरक्षण बहुत बार मुद्दा बनता रहा है.
चलिए, भेड़ो में सही अब हमारी ये शिकायत तो दूर हो जाएगी की हमारी तो कहीं गिनती ही नहीं है. वैसे भारत की जनगणना एक बहुत गंभीर और संवेदनशील विषय है और भारत की राष्ट्रपति महामहीम प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने देश की जनता से अनुरोध किया है की भारत की जनगणना 2011 और राष्ट्रिय जनसख्या रजिस्टर में अपना नाम सुनिश्चित करने के लिए जनसँख्या कर्मचारियों का पूरा सहयोग करें.
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