Monday, October 13, 2008

ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं.

सच तो ये है की जैसे कोई भी धर्म हिंसा नहीं सिखाता वैसे ही किसी भी धर्म को ये अधिकार नहीं दिया जा सकता की अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए इंसानियत के मानदंडो को तक पर रख दे।दक्षिण भारत के बहुत से इसाई बहुल इलाकों में रहने वाले किसी समय भूख से लाचार थे।

कुछ इसाई मिशनरियो ने उनकी इस हालात को देखा और करुणा भरे ह्रदय से उनकी सेवा और उन्हें भोजन दिया। मगर आहिस्ता-आहिस्ता उन्होंने यहाँ रहने वाले लोगो को इसाइयत और प्रभु इशु के बारे में बताया और प्रस्ताव दिया की वो सब अपना धर्म परिवर्तन करके इसाई हो जाए। इन इसाई मिशनरियों ये एहसान से दबे लोगो ने ऐसा ही किया। भूखे और बीमार लोगो को सेवा करने की शर्त पर इसाई बना लेना एक बहुत वीभत्स बात है। प्रभु इशु भी इसे स्वीकार नहीं कर सकते.
यहीं हम चलते-चलते बात करते हैं भारत की पहली महिला संत सिस्टर अलफोंसो की। मेरे विचार से किसी भी धर्म में माँ का दर्जा बहिन से बड़ा होता है। भारत में इसाई धर्म की सबसे अधिक सेवा करने वाली माँ टेरेसा को 'वेटिकेन' ने सिर्फ़ 'धन्य' माना है मगर 'सिस्टर अलफोंसो' को 'संत'. इसका एक कारण तो ये हो सकता है की माँ टेरेसा को 'वेटिकेन' द्वारा दी जाने वाली उपाधियों से कोई सरोकार नहीं था. सरोकार तो सिस्टर अलफोंसो को भी नहीं रहा होगा क्यूंकि वो प्रभु इशु और उनके सेवा भाव की एक प्रबल समर्थक थी. माँ टेरेसा और सिस्टर अलफोंसो दोनों ही सेवा और मातृत्व में किसी से कम नहीं थी.

फिर आख़िर 'वेटिकेन' ने संत की उपाधि 'सिस्टर अलफोंसो' को ही क्यूँ दी? वास्तव में सिस्टर अलफोंसो उस क्षेत्र से हैं जहाँ इसाइयत अपने प्रबल प्रवाह से फैली है। माँ टेरेसा बंगाल से थी और वहां इसाइयत इतना प्रभाव नहीं रखती। दूसरी बात ये की कथित तौर पर दूसरे धर्मो के जो हमले इसाई कौम पर हो रहे हैं वो इसी क्षेत्र से हैं. यहाँ इसाइयत के वेग को 'सिस्टर अलफोंसो' को मिली संत की उपाधि से बहुत बल मिलेगा.

खैर! हमारी तो पूरी आस्था इश्वर की शिक्षाओ में है. हमारी प्रभु इशु से प्रार्थना है की इसाई धर्म के रहनुमाओं और खासतौर से 'वेटिकेन' को अपने आशीर्वाद से नवाजें और उन्हें प्रेरणा दें की वो धर्म के लिए इंसानियत का इस्तेमाल न करें. प्रभु इशु इन्हे बख्शे क्यूंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं.

4 comments:

Parmita Uniyal said...

Bahut khoob!

सुजीत कुमार said...

आपने सही लिखा है, लेकिन मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं। पहला सवाल तो यही है कि क्या हिंदू समाज आदिवासियों को हिंदू मानता है। मैं समझता हूं नहीं। आदिवासी छोडिए दलित जातियां भी अपने आपको हिंदू नहीं मानतीं। वो तो 1992 में बाबरी ध्वंस के बाद हिंदू संगठनों ने हिंदुओं को संगठित करने का बीड़ा उठाया और उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने का काम शुरू किया। लेकिन अभी भी इक्के दुक्के घटनाएं होती रहती हैं जहां वे अपने आपको हिंदू नहीं समझ पाते। महाराष्ट्र की एक घटना शायद आपको याद हो जहां उच्च जातियों के लोगों ने दलितों को अलग करती हुई एक दीवार खींच दी थी।

जहां तक आदिवासियों की बात है वे तो पूरी तरह अलग हैं। उनके देवता अलग हैं, उनकी जीवन पद्धति अलग है। फिर जब इन इलाकों में जाकर उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन करने वाले ईसाईयों पर क्यों लोग बंदूक ताने हुए हैं। जबरदस्ती धर्मांतरण अलग बात है, लेकिन अगर उनकी सेवा को देखकर खुद ही लोग ईसाई बनना चाहें तो क्यों लोग सवाल उठा रहे हैं।

हमारा संविधान धर्मांतरण की इजाजत देता है। हमारे यहां तो ऐसी परंपरा रही है कि दूसरे धर्म से प्रभावित होकर उसके धर्म को सहस्र स्वीकार करते हैं। मैं कुछ उदाहरण देता हूं। अद्वैत वेदांती शंकर और मंडन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें शुरू में तो शंकर हार गए लेकिन बाद में जब मंडन मिश्र हारे तो उन्होंने बौद्ध धर्म छोड़कर वैदिक धर्म स्वीकारा।

इसी प्रकार एक यूनानी शासक मिनांडर जब बौद्ध गुरु नागसेन से शास्रार्थ में हार गया तो उसने सहस्र ही बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। मुझे मानना है कि यह मामला इसलिए मामला है क्योंकि राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे से राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहतीं हैं। अगर ईसाई मिशनरियों के काम से प्रभावित होकर लोग ईसाई बन रहे हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। हां, अगर इनके काम को ही आप खरीद-फरोख्त मानते हैं तो फिर तो आदिवासी इलाकों में इनके द्वारा किए गए विकास कार्य को ही रोकना पड़ेगा, जो किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति को स्वीकार नहीं होगा।

योगेन्द्र मौदगिल said...

सटीक विश्लेषण
फिर भी कुछ प्रश्न अनुत्तरित
खैर
है तो बहस का मुद्दा किन्तु अर्थहीन

BrijmohanShrivastava said...

दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ ""पढने लायक कुछ लिख जाओ या लिखने लायक कुछ कर जाओ ""

विचारको की मित्रमंडली